Posts

Showing posts from 2017

घर

घर लड़कियों के लिए खास रहा है घर पर अब तक नहीं हो पाया उसका घर एक समय घर में कैद थी लड़कियाँ मायके से ससुराल के घर पहुँचा दी जाती थी लड़कियाँ उसकी चारदीवारी ही उसकी जिंदगी थी पर अब तक नसीब नहीं हुआ उसे उसका अपना घर घर तो होता है पिता का, भाई का ससुर का, पति का, देवर का घर के कोने-कोने से प्यार होता है लड़कियों को कोने में लगे जालों को हटाती रहती हैं वह पर न जाने कैसे वह भी हट जाती है जालों के साथ दोनों ही घरों को सजाती है लड़की पर कोई भी घर नहीं होता उसका अपना एक जगह आज होती है वह, तो दूसरी जगह कल गढ़ती है वह दोनों घरों को जोड़ती है लड़की पर न जाने कैसे छूट जाती है लड़की बदल गया है अब समय अब तो चाहिए ही लड़कियों को घर और घर का हर एक कोना जो उसका अपना हो इसलिए लड़कियों जागो और अपना घर खुद बनाओ, उसमें रंग खुद भरो एक-एक रुपये जोड़कर खरीद लो घर अपना चाहे वह हो छोटा हो या बड़ा पर हो तुम्हारा, केवल तुम्हारा कोई तुम्हें कहने से पहले सोचे कि हाँ अब लड़कियों के पास भी है घर अपना जहाँ सांस ले सके खुलकर ताजगी भरी जिंदगी जी सके गहरी नींद सो सके
मैं : मीडिया महानगर से सलाम दुनिया तक का सफर मेरे जीवन का एक अहम हिस्सा पत्रकारिता जीवन में बिता। पर इसकी शुरुआत एक पत्रकारिता जीवन की तरह नहीं हुआ था। बात सन् 2000 की  है। जब मैं हावड़ा वाले घर गई थी। पापा शाम को घर लौटते समय महानगर सांध्य हिंदी दैनिक अखबार लेकर आये। उसमें एक डीटीपी आपरेटर का विज्ञापन निकला था। डीटीपी का काम अर्थात् कुछ मैगजीन छापने का काम मैं कर चुकी थी। हिंदी टाइप करने का ज्ञान था। इसलिए मुझे लगा यह काम मैं कर पाऊँगी। मैं तुरंत बड़े भैया को फोन की। उनके साथ मिलकर एक सीवी बनाया गया। और दूसरे दिन पापा के साथ महानगर कार्यालय पहुँच गई। वहाँ पहुँचने पर देखी कि महानगर के संपादक प्रकाश चंडालिया पूजा कर रहे हैं। थोड़ी देर रुकने के लिए बोल कर वह फिर से पूजा में लग गये। उसके बाद उन्होंने मुझे बुलवा भेजा। मैं उनके कैबिन में गई। बिल्कुल निर्भीक। उनके हाथ में मेरा सीवी था। उन्होंने पूछा कि तुम्हें हिंदी टाइप करने आता है। मैं बोली जी हाँ। तुरंत उन्होंने आदेश दिया कि एक कंप्यूटर उसे दिया जाए और टाइप करने के लिए कुछ दिया जाए। वहाँ उपस्थित लोगों ने तुरंत एक कंप्यूटर मुझे सौंप दि

सभी शिक्षकों को सत्-सत् प्रणाम

हमारा जीवन तीन हिस्सों में बंटा होता है। पहला बचपन, दूसरा विद्यार्थी जीवन और तीसरा नौकरी यानी कैरियर। तीनों पड़ावों में ही हमें हर दिन हर पल कुछ नया सीखने को मिलता है। सबसे पहला पड़ाव बचपन है। बचपन में सबसे करीब माँ होती है और परिवार होता है। हम अपनी माँ से बहुत कुछ सीखते हैं और परिवार के हर सदस्य से सीखते हैं। उनकी तरह चलना, बोलना, खाना यह हमारी पहली सीखने की नियति होती है। इसके बाद शुरू होता है विद्यार्थी जीवन। जो बहुत लंबा होता है, जहाँ हमें अलग-अलग उम्र में अलग-अलग विषय के लिए अलग-अलग गुरु मिलते हैं, और सबसे हम किताबी ज्ञान के अलावा भी बहुत कुछ सीखते हुए आगे बढ़ते हैं। पूरे विद्यार्थी जीवन में हमें इतने गुरु मिलते हैं, कि विद्यार्थी जीवन के आखिरी पड़ाव में हम शुरुआती गुरुओं को भूल ही जाते हैं। पर उनकी दी हुई सीख कहीं न कहीं हमारे अंदर होता है और वह हमारी जिंदगी का हिस्सा बना होता है। उसके बाद शुरू होता है जीवन का सबसे अंतिम और महत्वपूर्ण पड़ाव यानी नौकरी भरी जिंदगी, कैरियर की जिंदगी। आमूमन हम सोचते हैं कि विद्यार्थी जीवन खत्म होने से अब हम विद्यार्थी नहीं होते हैं। पर ऐसा नहीं है। विद
केवल माँ को ही मिलता है जीने को बचपन दुबारा दुनिया के 99 प्रतिशत लोगों की यही इच्छा होती है कि काश! बचपन लौट आये। बचपन की तरह भोलापन, सरलपन और चिंता से मुक्त जीवन हमें दुबारा मिलें। पर सभी यह जानते भी हैं कि यह हमें दुबारा नहीं मिलता है।  मेरा मानना है कि केवल माँ को ही बचपन फिर से जीने को मिल जाता है। अर्थात् जब एक लड़की माँ बनती है, तो उसके ऊपर जिम्मेदारियाँ तो बहुत बढ़ जाती है, पर उन जिम्मेदारियों के साथ उसे एक तोहफा मिलता है। वह है अपने बच्चों के साथ फिर से बचपन को जी लेने का। अपने बचपन की धुंधली यादों को ताजा कर लेने का। कई इच्छाएँ ऐसी होती है कि हम अपने बचपन में नहीं कर पाते हैं। उन इच्छाओं को भी पूरा करने का मौका मिलता है केवल एक माँ को ही। माँ शब्द जितना मीठा है उतना ही गहरा है। केवल एक अक्षर से बने माँ शब्द में जैसे पूरी दुनिया समायी हुई है। एक बच्चे के लिए भी और एक माँ के लिए भी। सबसे बड़ी बात है कि बच्चे जैसे जैसे बड़े होते जाते हैं, यह शब्द उतना ही अच्छा लगने लगता है। एक माँ के लिए वह दिन सबसे ज्यादा खास होता है जब उसका बच्चा उसे पहली बार माँ पुकारता है। और यह शब्द जैसे उसे
ऐ पुरुष जरा सोचो और बदलो खुद को हमारे समाज व परिवार में पुरुष का स्थान काफी महत्वपूर्ण है। एक बच्ची से लेकर वयस्क औरत तक कहीं न कहीं एक पुरुष पर ही निर्भर रहती है। समाज का सबड़े बड़ा मजबूत खंभा माना जाता है पुरुष वर्ग। महिलाओं की तरह पुरुष वर्ग में भी कुछ अच्छाइयाँ और कुछ खामियाँ हैं। अब तक महिलाओं की खामियों पर बहुत बार पेन चलाया गया है, गोष्ठियाँ की गई हैं पर पुरुष ने न तो कभी अपने गिरेवान में झांका है और न खुद को सुधारने की कोशिश की है। महिलाओं की तो जुर्रत ही नहीं हो सकती थी कि वह पुरुष को उंगली दिखाये और बताये कि तुम्हारे अंदर भी कमियाँ है। इसलिए पुरुष वर्ग काफी आत्मविश्वास से हर कार्य करते हैं, चाहे वह समाज व परिवार के लिए सही हो या नहीं। उन्हें फैसला लेने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती है, पर एक महिला को अगर सामान्य सी बात  भी सोचनी हो तो कई बार फैसला करती हैं और फिर उसे जाँचने की कोशिश करती रहती है कि वह फैसला सही है या नहीं। पुरुष वर्ग चाहे वह भाई हो या पिता, दोस्त हो या पति सभी एक बार फैसला लेते हैं और उसे ही सब को मानना पड़ता है। जिस तरह स्त्री की कुछ आदतें हैं, वैसे ही पुरुष
महिला दिवस पर महिला की खास दोस्ती गर्मी का समय। शाम पाँच बजने वाला है। मौसम में थोड़ी ठंडक शुरू हो चुकी है। सब अपने-अपने काम में लगे हुए हैं। बच्चे स्कूल से लौट चुके हैं। घर की औरतें अपने सुबह के काम को समेटते हुए शाम के काम की तैयारी करने वाली है। इस बीच अचानक एक महिला ने सारी महिलाओं को पुकारना शुरू कर दिया। जल्दी-जल्दी सीढ़ियों के पास महिलाओं की भीड़ और उसके पीछे उछलते-कूदते झांकते बच्चे। सभी के मन में एक ही उत्सुकता। आज उसने किस रंग की साड़ी पहनी थी, कैसा सैंडिल था। लिपिस्टिक का रंग गाढ़ा या हल्का। बस कुछ ही मिनटों में आँख से ओझल होने के बाद सभी अपने –अपने किस्मत का रोना शुरू कर दी। देखो एक हमलोगों की किस्मत, और एक यह है चाहे कोई भी मौसम हो। शाम होते ही पति के साथ घूमने के लिए निकल जाती है। घर में छोटे-छोटे बच्चों की भरमार, फिर भी कोई चिंता नहीं। सज-धज कर चल दीं। अब रात में नौ बजे के बाद आयेगी, और खा-पीकर सो जायेगी। और फिर कल शाम सज-धज कर चल देगी। वाह! क्या किस्मत। यह एक दिन का रूटीन नहीं था। महीनों से महिलाएं देख रही हैं कि एक महिला को, जो 25-26 साल की होगी। सुंदर। नाम राजकुमा
बात उस समय की है, जब मेरी छोटी बेटी हुई। उस दिन जैसे ही आपरेशन थियेटर से बेड पर पहुँची, और पूरी तरह से बेहोशी टूटी भी नहीं थी कि मेरे पति ने कहा कि तुम्हारे लिए फोन आया है। मैं किसी तरह फोन पकड़कर हैलो बोली। उधर से आवाज आयी, तुम घबराना नहीं। परेशान नहीं होना। किस्मत को जो मंजूर था, वही हुआ। मैं समझ नहीं पाई। फिर भी फोन पकड़कर सुन रही थी। उस तरफ से आवाज आने का सिलसिला जारी रहा। कोई बात नहीं एक लड़की थी। अब एक और हो गई। तुम घबराना नहीं और दुखी भी नहीं होना। मैं अब समझ गई। यह सांत्वना के शब्द किसलिए थे। क्योंकि मैं दूसरी बार भी बेटी को जन्म दी थी। मैं बोली – मैं बिल्कुल ठीक हूँ और परेशान नहीं हूँ। और ना ही मेरे पति ही परेशान है। हम लोगों ने जब दूसरी संतान के बारे में फैसला लिया था तब ही सोच लिया था कि चाहे बेटा हो या बेटी। दोनों का स्वागत है। हाँ, इसके पहले हमारी एक बेटी है, इसलिए अगर बेटा होता तो ठीक होता। लेकिन बेटी होने पर भी हमदोनों में से कोई भी दुखी या परेशान नहीं है। हम दोनों अपनी संतान से खुश हैं। यह पहला फोन था, उसके बाद से जैसे महीनों तक यह सिलसिला चलता रहा। हम कहीं भी जाते, दया
वर्ष 2016 जाने को तैयार है और वर्ष 2017 आने को तैयार है। सभी के मन में खुशी और उमंग भरा पड़ा है। नये वर्ष के आगमन को लेकर, कुछ नया करने को लेकर मन में उत्साह भरा रहता है। मेरा मन भी खुश है कि वर्ष 2016 अच्छे से बीता और उम्मीद करता है कि 2017 भी अच्छा से बीतेगा। पर 2017 से डर भी लगता है। डर मतलब 2017 से। जी, वैसे मुझे बचपन से ही सात अंक वाले संख्या से ही डर लगता है। मेरे मन में एक डर समाया हुआ है, सात अंक से। इसका कारण तो मैं अच्छी तरह से नहीं जानती, पर जब मैं छोटी थी तो  भी सात अंक से बहुत डरती थी और इस अंक से अपने आपको दूर रखने की कोशिश करती थी। वैसे दिन, महीना हो तो भी मेरी हालत खराब हो जाती थी। अब तो 2017 वर्ष ही आ रहा है। यानी पूरा एक साल यानी 12 महीने 17 का चक्कर। पता नहीं यह नववर्ष कैसा होगा। 365 दिन कैसे बीतेगा। वैसे इसके पहले वर्ष 2007 बीता है। वो तो पूरा साल ठीकठाक ही बीता था। लेकिन अंतिम महीने यानी नवंबर और दिसंबर का महीना कष्ट का महीना रहा। नवंबर महीने में ही माँ को कान, गले में दर्द होना शुरू हुआ और उसके बाद उनका टेस्ट पर टेस्ट और आखिर में कैंसर और कैंसर से मौत का सफर तय ह