औरत


टुकड़ों-टुकड़ों को जोड़ते
न जाने कब टुकड़ों में बंट
 जाती है औरतें
घर-बाहर-पति-बच्चों को
संभालते-संभालते
न जाने कब खुद को
संभाल नहीं पाती औरत
चारों ओर लोगों से घिरी
हो जाने के बावजूद कितनी
अकेली होती है औरत
दर्द को मिटाने में जुड़ी औरत
न जाने कहाँ से  कैसे जुटा
लेती है दर्द ही दर्द
अपने दिल में
किताबों में, रसोई में
रमने के बाद भी न जाने
कैसे स्वाद नहीं मिल पाता
उसे जीवन का
जब थक कर
रुकती है दो कदम जब
और चाहती है
कि उसके सर पर किसी का हाथ
हो
और पास में किसी का साथ हो
तो कोई नहीं होता
उसके आस-पास
पर जैसे ही सूर्योदय होता है
ढेर सारे काम होते हैं उसके पास
अपनों के लिए
पर शाम ढलने के बाद
कोई नहीं होता उसके पास
सबकी अपनी-अपनी दिनचर्या है
सबका अपना –अपना काम है

बस घर में वहीं केवल बेकार है

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