मेरे छोटेबाबू
कुछ दिन पहले फादर्स डे मनाया गया। सबने ही अपने पिता को याद किया। मेरे
पिता के भाई अर्थात् चाचा उर्फ छोटे बाबू की पुण्यतिथि आज है। मेरे चाचा बिल्कुल
सामान्य व्यक्ति थे। लंबा कद, मोटा शरीर और सांवला रंग। पर उनका व्यक्तित्व बहुत अच्छा
था। वह सारी जिंदगी अपने भैया-भाभी के साथ गुजार दिये। वह कलयुग के लक्ष्मण थे। जहाँ
एक तरफ पूरी ईमानदारी और मेहनत से पापा के मानव पत्रिका के कार्य में सहयोग निभाया
करते थे, वहीं भाभी के एकमात्र देवर अपनी भाभी का हमेशा ख्याल रखा करते थे। भाभी अगर
छठ पूजा का व्रत करती थी, तो देवर बड़ी श्रद्धा और लगन से छठ पूजा का प्रसाद बनाने में साथ देते थे। जहाँ भाभी
बीमार पड़ती, देवर उनकी सेवा के लिए तत्पर रहते। एक पल भी पीछे नहीं होते। वह कहते थे
कि भाभी माँ बराबर होती है, तो उनकी सेवा करने में शर्म कैसी? वह हम पाँच भाई-बहनों
को भी बहुत ज्यादा प्यार करते थे। बड़े भैया और भाभी को प्यार भी करते थे, पर उनके सामने
डरते भी थे। फिर पीछे कहते कि मैं डरता नहीं, बच्चे बड़े हो गये इसलिए उसके सामने ज्यादा
नहीं बोलता। मझले भाई का हमेशा ख्याल रखा। छोटे वाले भैया से उनका तू-तू-मैं-मैं होता
रहता था। एक साथ काम करते, एक साथ लड़ते। पर उनके बीच प्यार भी खास था। यहाँ तक कि एक
समय वह छोटे भाई को गोद लेना चाहते थे। पर पापा ने कहा कि पाँचों ही तुम्हारे बच्चे
है, तो किसी एक को गोद क्यों लेना। दीदी के साथ उनका जबरदस्त 36 का आंकड़ा था। पर कुछ
चीजों में दोनों समान थे। दोनों को ही खाने-पीने का बहुत शौक था। शाम होते ही दोनों
चाट-पकौड़ी की दुकानों के इर्द-गिर्द नजर आते। और घर में सबसे छोटा अर्थात बड़े भैया का लाडला किंशुक
उनका भी लाडला था। वह कई वर्षों तक किंशुक को रवि नाम से पुकारते थे क्योंकि वह रविवार
को हुआ था। वह सबसे ज्यादा उसे प्यार करते थे। पर जब वह छोटा था और हावड़ा वाले घर आने
वाला होता था, तो छोटे बाबु अपने बाल काफी छोटे करवा लेते थे और कहते थे कि देखो अब
तुम मेरे बाल खींच नहीं पाओगे। जहाँ एक तरफ किंशुक को ढेर सारा प्यार करते थे, वही
दूसरी तरफ मेरे पतिदेव अर्थात गुड्डू की काफी इज्जत करते थे। पर कुछ खाने पीने की इच्छा
हुई, तो वहाँ फोन कर देते थे। उनदोनों में घंटों चर्चा का दौर चलता। कभी राजनीति, दुनिया
दारी की, तो कभी परिवार की। वह अपना दुख-दर्द भी उनके साथ सांझा करते थे। मेरे साथ
उनका बहुत प्यारा रिश्ता था। जब उन्हें कुछ कहना हो, कुछ चाहिए हो, किसी तरह की बात
करनी हो तो वो मुझे कहते। मुझे बहुत अच्छा लगता था। उनकी तबियत जब मई 2008 में खराब
लगने लगी तो, उन्होंने एक दिन मुझे फोन करके हावड़ा वाले घर में बुलाये और कहा कि मेरी
तबियत अच्छी नहीं लग रही है। मैं बोली कि चलिए डॉक्टर को दिखा देती हूँ तो उन्होंने
कहा कि नहीं डॉक्टर के पास नहीं जाऊँगा। मुझे लग रहा है कि तबियत ज्यादा खराब है, इसलिए
मुझे अस्पताल ले चलो। मैं तुरंत वहीं से अपने बड़े भैया को फोन की। उन्होंने कहा कि
ठीक है, उन्हें हमलोग अस्पताल ले जायेंगे। अगले दिन उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाया
गया और करीबन तीन हफ्ता अस्पताल में रहने के बाद 24 जून 2008 को सुबह –सुबह उन्होंने
अंतिम सांस ली। जिस समय यह घटना घटी, उस समय एक तरफ मेरी माँ कैंसर से लड़ रही थी और
दूसरी तरफ मैं प्रिगनेंट थी और डिलीवरी का दिन नजदीक आ चुका था। माँ को यह सूचना देर
से दी गई। माँ ज्यादा रोये नहीं, और उनकी तबियत बिगडे नहीं इसलिए हमलोगों ने भी अंदर ही अंदर
रोकर उन्हें अंतिम विदाई दी। उनका अंतिम संस्कार उनके प्रिय भतीजे किशोर ने ही किया।
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