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Showing posts from October, 2024

दिल की बात

जो चाहा, पाई नहीं, जो पाई वह चाही नहीं। जिसका सपना देखी, वह हकीकत बन नहीं पाया। जो हकीकत में है, उसको अपना नहीं पाई। अकेले रहना अच्छा नहीं लगता। लोगों का साथ मिलता नहीं। कोई मुझे समय देता नहीं, मेरा समय किसी को चाहिए नहीं। मैं किसी की दीवानीं नहीं, कोई मेरा चाहनेवाला नही। मैं इतनी गरीब नहीं, कि मैं गरीब का लेबल लगाकर घूमूँ। और अमीर भी इतनी नहीं कि शान, शौकत से रह सकूँ। छोटा सा प्यारा परिवार है, लेकिन बुजुर्ग की कमी है। लोगों से दूर हूँ, पर किसी से अंजान नहीं। मसलन,मसलन न जाने कितनी बातें हैं और कुछ भी बातें नहीं। बातें बहुत है पर सुनने वाला कोई नहीं। दिल की तो एकदम नहीं। काम मैं ज्यादा कर नहीं पाती,इसलिए काम से मैं दूर ही रहती हूँ। दिल की बात दिल में है। दिल के बाहर की बात भी कोई नहीं करने वाला। मेरे अकेलेपन को मैं दिन दुनी रात चौगुनी बढ़ाती रहती हूँ।

छुट्टी और मैं

सोची थी कि इस बार की दुर्गापूजा को मैं खास बनाऊेंगी। खूब घूमूंगी। कोलकाता के चप्पे चप्पे पर होने वाले पूजा पंडाल को देखूंगी। थोड़ा ज्यादा ही सोच रही थी, लेकिन इच्छा थी कि इस वर्ष दुर्गापूजा में खूब घुमुंगी। कोलकाता के जिस इलाके में कभी रहा करती थी,जैसे हावड़ा, बालीगंज, टालीगंज, बांगुड़ समेत न जाने कितने इलाके में घूमना था, और हाँ हमारा अपना न्यू टाउन वहाँ भी घूमना था। सोची थी कि दस दिनों की इस छुट्टी में एक दिन भी घर में नहीं रहूँगी। पहले पूजा पंडाल घूमूंगी, माँ दुर्गा के दर्शन करूँगी। लाइटिंग देखूंगी। और उसके बाद कोलकाता के कई मंदिरों में भी जाऊँगी। घूमूंगी, खूब खाऊँगी। अगर कोई मिला तो किसी केसाथ जाऊंगी, अगर कोई नहीं मिला तो अकेले ही निकल पडूंगी। लेकिन दुर्गापूजा के आते ही मैं बीमार पड़ गई और पूरे नौ दस दिन बीत गये, खांस-खाँस कर बिस्तर पर पड़ी रही।बुखार में तड़पती रही। शुरुआत में दवा न खा की जिद्द पर पड़ी रही, बाद में दवाइयों का हीसहारा लेना पड़ा। बस यूँ ही बीत गया मेरा छुट्टी और रफूचक्कर हो गया मेरा घूमने का प्रोग्राम। इसी का नाम जिंदगी है।

मैं और मेरी तन्हाई

मैं जितनी अजीब मेरी तन्हाई उससे भी अजीब। मैं जितनी उलझी, मेरी तन्हाई उससे भी ज्यादा उलझी। दोनों आपस में लड़ते रहते हैं।अक्सर मैं जीत जाती हूँ, तोकभी कभी तन्हाई भी जीत जाती है। मैं मतलब मैं। मैं मतलब अहंकार वाला मैं नहीं। मेरा वाला मैं। यानी रेखा श्रीवास्तव वाला मैं। इस मैं का कहना है कि कुछ करो,खूब घूमो, लाइफ को इंजाय करो। लेकिन वहीं मैं का एक ओर हिस्सा है वह कुछ भी करने नहीं देता।जबकि वह चारों ओर सबको सबकुछ करते देख कर बहुत खुश होता है, लेकिन हिम्मत है कि वह कुछ कर लें, या करने दें। इसी कशम्कश में मैं उलझी जाती हूँ। उलझी रहती हूँ। मैं क्या चाहतीहूँ, क्या करती हूँ, क्या नहीं करती हूँ। बहुतमुश्किल हो रहा है। और उस पर से मेरी तन्हाई। वह तो मुझे पसंद नहीं, इसलिए मुझे जीने भी नहीं देती। सोचिए कि मेरी क्या स्थिति है।