पिंक…पिंक…पिंक
पूजा
की छु्ट्टी में फिल्म पिंक देखी। पिंक यानी हल्का रंग, जिसे लड़कियों के लिए चिंहित
कर दिया गया है। पिंक यानी गुलाबी रंग, यानी
गुलाब फूल का प्रिय रंग। बिल्कुल सही। जिस तरह प्राकृतिक ने गुलाब फूल के पेड़
में नाजुक फूल के साथ कांटे भरे हुए हैं, उसी तरह हम लड़कियों के जीवन में कुछ लड़के
कांटे के रूप में आ जाते हैं। सबसे बड़ी बात है कि लड़कियाँ कितना हंसे, कितना मुस्कुराये,
कितनी बातचीत करें, कैसा कपड़ा पहने, क्या खाये-क्या पीये इत्यादि…इत्यादि के लिए सीमाएं
तय की गयी है, पर वे लड़के आजाद पक्षी की तरह आसमान में उड़ते हैं। इसके बाद लड़के लड़कियों
को 24 X 7 घंटे उपलब्ध वाली सेवाएं समझते हैं, कि कभी भी उनके गंदे इशारों को समझ लें,
उनके सामने पेश हो जाये। वह कभी भी लड़कियों को यूज एंड थ्रो कर सकते हैं। यह समस्या
आजाद भारत के आजाद नवयुवकों की ही वजह से है।
उस पर अगर वह अमीर बाप का बेटा हुआ तो समझो पूरी दुनिया का ठेका उसी के पास है और वह
इस दुनिया में कुछ भी कर सकता है। उसके लिए छेड़खानी, बलात्कार, धमकी देना जैसे आम बात
है। इसी ताने-बाने को लेकर ही निर्देशक अनिरुद्ध राय चौधुरी ने पिंक फिल्म का निर्देशन
किया है। इस फिल्म की कहानी नौकरीशुदा तीन लड़कियाँ मीनल, फलक और आंद्रिया (तापसी , कृति, आंद्रिया ) की कहानी है, जो एक शाम
रेस्टोरेंट में खाने-पीने के इरादे से जाती है और वहाँ मिल जाता है तीन अमीरजादा, जो
लड़कियों के खाने, हंसने की मासूमियत को हिंट्स समझ लेता है और छेड़खानी और जबरदस्ती
जैसा अपराध करने लगता है। लड़कियों के ना कहने पर भी उस पर जबरन करना चाहता है। उसमें एक लड़की अपनी रक्षा के लिए लड़के पर हमला
कर देती है और खुद को सुरक्षित रख पाने में कामयाब हो जाती है। लेकिन यहाँ की कामयाबी
उसे जीने नहीं देती। उस पर हमला, धमकी जैसे न जाने क्या-क्या अत्याचार शुरू हो जाते
हैं और आखिर में कामयाब हो जाता है। इतना ही नहीं, इसके बावजूद उन लड़कियों पर मामला
दर्ज कर दिया जाता है। और यह मामला सीधे कोर्ट तक पहुँच जाता है। इस सारे दर्द को अगर
कोई महसूस कर पाता है तो एक वकील दीपक सहगल (अमिताभ बच्चन) जो इसी इलाके में रहता है
और उन्हें बचाने की कोशिश में लग जाता है। कोर्ट की बहसा-बहसी में लड़के और लड़कियों
में अंतर, दोनों के सामाजिक दायरे और कई सवालों को वकील ने उठाया और इसके साथ ही यह
भी स्पष्ट कर दिया कि मनचले युवकों के साथ केवल उसके पिता का धन-दौलत ही नहीं , उनकी
पैरवी से पुलिस भी अपने आपको बचा नहीं पायी। एक महिला पुलिस कर्मी होने के बावजूद वह
गुंडों, मवालियों का साथ देती हैं। सबसे आश्चर्य
बात यह रही कि फिल्म के आखिर में लड़कियों के पक्ष में फैसला हुआ और लड़कों के बाप का
जादू नहीं चल पाया। वैसे यह फैसला यकीन दिलाने वाला नहीं था, लेकिन इस फैसले से लड़कियों को उम्मीद की एक किरण
दिखीं। वे अब इस तरह के हो रहे अत्याचार का
डंटकर सामना कर सकेगी। आज नौकरी के
लिए अलग शहर में रहने वाली लड़कियों को इससे काफी मनोबल मिला है। वे अब लड़कों को ना
का मतलब केवल ना के रूप में अच्छे से समझा पायेगी। वैसे इस फिल्म के अंत में गुलाब फूल खिल गया और उस
पर कांटे का कोई असर नहीं हुआ। लेकिन अब लड़कियों को अपना मनपसंद रंग पिंक से नीला या
पीला कर देना चाहिए और उसे समझना चाहिए कि अब पूरा आसमान उसका है और सूर्योदय होकर
रहेगा।
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