वर्ष 2016 जाने को तैयार है
और वर्ष 2017 आने को तैयार है। सभी के मन में खुशी और उमंग भरा पड़ा है। नये वर्ष के
आगमन को लेकर, कुछ नया करने को लेकर मन में उत्साह भरा रहता है। मेरा मन भी खुश है
कि वर्ष 2016 अच्छे से बीता और उम्मीद करता है कि 2017 भी अच्छा से बीतेगा। पर
2017 से डर भी लगता है। डर मतलब 2017 से। जी, वैसे मुझे बचपन से ही सात अंक वाले संख्या
से ही डर लगता है। मेरे मन में एक डर समाया हुआ है, सात अंक से। इसका कारण तो मैं अच्छी
तरह से नहीं जानती, पर जब मैं छोटी थी तो भी
सात अंक से बहुत डरती थी और इस अंक से अपने आपको दूर रखने की कोशिश करती थी। वैसे दिन,
महीना हो तो भी मेरी हालत खराब हो जाती थी। अब तो 2017 वर्ष ही आ रहा है। यानी पूरा
एक साल यानी 12 महीने 17 का चक्कर। पता नहीं यह नववर्ष कैसा होगा। 365 दिन कैसे बीतेगा।
वैसे इसके पहले वर्ष 2007 बीता है। वो तो पूरा साल ठीकठाक ही बीता था। लेकिन अंतिम
महीने यानी नवंबर और दिसंबर का महीना कष्ट का महीना रहा। नवंबर महीने में ही माँ को
कान, गले में दर्द होना शुरू हुआ और उसके बाद उनका टेस्ट पर टेस्ट और आखिर में कैंसर
और कैंसर से मौत का सफर तय हुआ। और नवंबर महीने में ही मैं प्रेगेंट हुई और मैंने प्रभात
खबर की नौकरी को छोड़ने का फैसला किया। यानी 2007 जाते-जाते दो बड़े झटके दे गया। नौकरी
की ज्यादा चिंता नहीं थी, क्योंकि उससे ज्यादा मैं खुश थी कि मैं अपने बच्चे को अच्छे
से जन्म दे पाऊँगी। और उसके बाद नौकरी छोड़ने के कारण ही मैं माँ के साथ डॉक्टर, टेस्ट
करवाने के लिए जा सकी और उनके साथ पूरा समय दे सकी। इसलिए मुझे नौकरी छोड़ने का इतना
दुख नहीं था, लेकिन माँ की बीमारी 2007 का झटका था जो हम सब को अंदर से हिला दिया।
मेरी माँ ने तो इतना कष्ट झेला कि नवंबर 2007 से फरवरी 2009 तक घर, अस्पताल और आखिर
में मौत के पास ही पहुँच गयीं। इसलिए मुझे 2017 से बहुत ज्यादा डर लग रहा है। मैं कुछ
भी खोना नहीं चाहती हूँ। वैसे भी मेरे पास, मेरे परिवार के पास बहुत थोड़े से लोग, थोड़ी
सी खुशी है। इसलिए भगवान आप मेरे घर, मेरे परिवार, मेरे अपनों को कोई भी कष्ट नहीं
देना। भगवान से मैं सिर्फ इतना मांगती हूँ कि वर्ष 2017 भी अच्छे और सकून के साथ बीते,
और हम भविष्य के लिए एक कदम आगे बढ़ा पायें।
वैलेंटाइन डे
आज बचपन की कुछ बातें याद आ गई। बात यह थी कि उस समय हमारे घर में पापा ऑफिस से सीधे घर आ जाया करते थे। यानी शाम को सात बजे के करीब वह घर आ जाया करते थे। हाँ,जब वह कोलकाता से बाहर है, तो उसकी बात दूसरी। हाँ, तो मैं बोल रही थी कि शाम सात बजे से सुबह नौ बजे यानी जब उनका कार्यालय जाने का समय होता तब तक का समय हमलोग साथ में बिताते थे। उस समय पापा अपना काम, आराम, और भी बहुत कुछ किया करते थे। हमलोग पढ़ाई, घर का हल्का फुल्का काम, और खेलना जैसा बड़ा काम करते रहते थे। माँ भी अपने काम में व्यस्त रहती थी। यानी सब अपने अपने काम में व्यस्त। लेकिन सबको सबका साथ। और आसपास के चाचा-चाची,भैया-भाभी अगर शाम को घर आ गये, तो अच्छा खासा अड्डा जम जाता था। बहुत सारी बातें होती थी, पकौड़ी छनने लगता था, लूडो भी शुरू हो जाता था । घर में अपनापन, सुख का एक माहौल होता था। भरपूर बातचीत का समय मिलता था। हम सब साथ होते थे। आपस में बहुत सारी बातें होती थी। पापा के आने के बाद माँ भी रिलेक्स होती थी। उनके चेहरे पर सुकून और शांति होती थी। बच्चों के चेहरे पर खुशी और अपनेपन का माहौल होता था। सब साथ-साथ होते थे। कई बार नोंक-झोंक...
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