मैं : मीडिया
महानगर से सलाम दुनिया तक का सफर

मेरे जीवन का एक अहम हिस्सा पत्रकारिता जीवन में बिता। पर इसकी शुरुआत एक पत्रकारिता जीवन की तरह नहीं हुआ था। बात सन् 2000 की  है। जब मैं हावड़ा वाले घर गई थी। पापा शाम को घर लौटते समय महानगर सांध्य हिंदी दैनिक अखबार लेकर आये। उसमें एक डीटीपी आपरेटर का विज्ञापन निकला था। डीटीपी का काम अर्थात् कुछ मैगजीन छापने का काम मैं कर चुकी थी। हिंदी टाइप करने का ज्ञान था। इसलिए मुझे लगा यह काम मैं कर पाऊँगी। मैं तुरंत बड़े भैया को फोन की। उनके साथ मिलकर एक सीवी बनाया गया। और दूसरे दिन पापा के साथ महानगर कार्यालय पहुँच गई। वहाँ पहुँचने पर देखी कि महानगर के संपादक प्रकाश चंडालिया पूजा कर रहे हैं। थोड़ी देर रुकने के लिए बोल कर वह फिर से पूजा में लग गये। उसके बाद उन्होंने मुझे बुलवा भेजा। मैं उनके कैबिन में गई। बिल्कुल निर्भीक। उनके हाथ में मेरा सीवी था। उन्होंने पूछा कि तुम्हें हिंदी टाइप करने आता है। मैं बोली जी हाँ। तुरंत उन्होंने आदेश दिया कि एक कंप्यूटर उसे दिया जाए और टाइप करने के लिए कुछ दिया जाए। वहाँ उपस्थित लोगों ने तुरंत एक कंप्यूटर मुझे सौंप दिया और फाइल खोलकर दे दिया और कहा कि हिंदी में टाइप करके दिखाये। मैं लगभग एक पैराग्राफ टाइप की। उसके बाद संपादक महोदय ने बुलवा लिया। सीवी को देखते हुए उन्होंने कहा कि तुमने सीवी में  जयप्रकाश जी, जो जनसत्ता में काम करते हैं, उनको कैसे जानती हो।  मैं बोली कि वो मेरे भैया के मित्र है और हमारे घर उनका आना-जाना होता रहता है। इसलिए मैं जानती हूँ। उन्होंने कहा अच्छा ठीक है बाहर बैठो। थोड़ी देर में उन्होंने मुझे फिर बुलाया। कहा कि देखो तुम्हारे पास काम करने का अनुभव नहीं है, इसलिए अभी तुम्हें केवल1700 रुपये महीना मिलेगा। कुछ महीनों के बाद सैलेरी बढ़ाई जायेगी। सोमवार से शनिवार तक ड्यूटी होगी सुबह दस से शाम पाँच बजे तक। तुम कल से चली आओ। मैं खुशी-खुशी बाहर निकली। और पापा को बताई कि पापा बात हो गई। मुझे 1700 रुपये मिलेगा और कल से आना है। वहाँ से पापा अपने काम में चले गये और मैं हावड़ा वाले घर चली गई। अब अंदर से खुशी कि कल से मुझे आफिस जाना है। काम करना है। और अगले दिन पौने दस बजे ही महानगर कार्यालय पहुँच गई। वहाँ पर मुझे कई सीनियर सहकर्मी मिले। सभी ने अच्छे से बातचीत की और काम का दौर शुरू हुआ। उस दिन के पहले अखबार कार्यालय के काम-काज के बारे में नहीं जानती थी। इसलिए मैं पूरी तरह अनभिज्ञ थी। लेकिन हाँ वहाँ के सहकर्मियों और संपादक के बीच बहुत अच्छा खुशनुमा माहौल देखी, तो अच्छा लगा। शुरुआत में केवल मुझे केवल न्यूज लिखा हुआ दे दिया जाता और मैं टाइप कर देती। उसके बाद उसका क्या करना है, वो मुझे नहीं मालूम था। मेरी नौकरी की दुनिया केवल टाइप करने तक थी। कुछ दिन बाद जब मैं न्यूज टाइप कर रही थी, कि साढ़े-ग्यारह बजे संपादक जी आये और पूजा-पाठ करने के बाद जैसे ही अपनी कुर्सी पर बैठे तो उन्होंने एक सीनियर कर्मचारी से पूछा कि आज का लीड क्या है। उसने कहा कि अभी तक आज का लीड नहीं मिला है। बस इतने में तो संपादक महोदय का चेहरा का रंग बदल गया और उनके मुँह से एक शब्द निकला। गेट आउट। वो पूछा क्या। मतलब। मतलब कि तुम्हें अभी तक लीड नहीं मिला तो तुम यहाँ क्या कर रहे हो। गेट आउट। वो सही में गेट आउट हो गया। मुझे तो कुछ समझ में नहीं आया। तब तक मैं लीड शब्द का मतलब ही नहीं जानती थी। और केवल लीड नहीं मिलने से गेट आउट। यह कैसी नौकरी। कई सवाल मेरे मन में चलने लगे। लेकिन देखी थोड़ी देर में माहौल सामान्य हो गया और लोग काम में लग गये। उसके बाद धीरे-धीरे अखबारी दुनिया को समझने लगी। जैसे लीड मतलब फस्ट पेज का मुख्य खबर। दो बजे तक पेज को प्रिंट करने के लिए भेज देना। ट्रेसिंग निकालना। प्रुफ करना इत्यादि। समझने में दो-तीन महीने लगे। उसके बाद से मुझे मिला पेज बनाने का काम। आफिस का माहौल कभी खुद कूल –कूल रहता तो कभी खुब गर्म-गर्म। लगभग एक बजे से दो बजे तक अर्थात् जब पेज छपने के लिए जाने वाला हो, तब तक तो लगता जैसे युद्ध स्थल चल रहा है।  न्यूज सर्च करना, इम्पोर्टेंट न्यूज को जल्दी-जल्दी एडिट करना, पेज पर लगाना, प्रिंट करना, ट्रेसिंग निकालना, प्रेस में भेजना काम रोज ऐसे होता जैसे तेूफान आ गया और जैसे ही पेपर छप आ गया तो माहौल नार्मल हो जाता। लेकिन हाँ किसी दिन किसी पेज पर कोई गलती रह जाती, तो फिर से कार्यालय में तूफान का माहौल हो जाता और अगले दिन के लिए फिर जोर-शोर से काम शुरू हो जाता। शाम पाँच-छह बजने के बाद भी काम जैसे खत्म होने का नाम नहीं लेता। समय को लेकर मुझे तनाव होने लगा। क्योंकि वहाँ कार्यालय में जो लोग काम करती थी, कि वो रात के नौ बजे तक काम करती थी। मैं तो पाँच बजे के बाद ही छटपटाने लगती और साढ़े-पाँच बजे के बाद तो मैं रुकने के लिए तैयार नहीं होती। लगभग छह महीने तक काम करने के बाद वहाँ का तनाव, वहाँ का माहौल और समय को लेकर प्राब्लम शुरू हो गई। मैं साढ़े पाँच बजे के बाद कार्यालय में रुकने को तैयार नहीं थी, और संपादक महोदय का कहना है कि तुम्हारे सारे सीनियर काम कर रहे हैं, तो तुम्हें कैसे छोड़ दूँ। इसलिए आखिरकार मुझे नौकरी छोड़नी पड़ी। नौकरी छोड़ने का दुख तो था, लेकिन इतनी देर रात तक काम करने के लिए मन साथ नहीं दे रहा था। फिर वहाँ का माहौल भी कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। इसलिए फिर से पुरानी दिनचर्या में लौट आयी। एक-दो महीने के बाद फिर जब मैं हावड़ा गई थी, तो वहाँ लैंडलाइन (पहले लैंडलाइन ही होता था) पर महानगर कार्यालय से फोन आया। उस तरफ से वहाँ पर काम कर रही श्वेता दी थी, और उन्होंने कहा कि कल आफिस में आकर मिलो। मन में फिर से खुशी होने लगी। ठीक समय पर पहुँची। वहाँ का नजारा बदला हुआ था। अखबार बिना संपादक का हो गया था। पहले जो संपादक थे वो अपना एक अखबार निकालने के लिए यहाँ से जा चुके थे, और यह अखबार मझधार में अटका हुआ था। फिर काम की बातचीत शुरू हुई और दो हजार रुपये महीने में काम की शुरुआत हुई। अब टाइप करने के साथ-साथ इंटरनेट से न्यूज निकालना, पेज बनाना, प्रूफ करना सभी काम करना पड़ा। और अखबार को हमलोगों ने रुकने नहीं दिया। समय पर ही प्रिंट होता, और बाजार में पहुँच जाता। फिर एक संपादक आये। रुक्म जी। काफी सीनियर। सन्मार्ग में वर्षों तक काम करने का अनुभव। उनके संपादन में महानगर में कई परिवर्तन हुआ। अखबार के रंग-रूप में परिवर्तन के साथ-साथ संपादकीय टीम में भी अंतर आया। धीरे-धीरे मैं उनकी प्रिय बन गई। अखबार में सबसे महत्वपूर्ण काम होता, पेज नंबर एक बनाना। वो भी मैं बनाने लगी। रिपोर्टिंग भी करने लगी। अखबारों में लिखने भी लगी। इसी दौर में पहला फीचर मेरे नाम से निकला। मुझे इतनी खुशी हुई कि मैं कैसे बताऊँ। अखबार में लिखना,  नाम का भी एक नशा होता है। इसके बाद बांग्ला अखबारों से अनुवाद करके खबरें बनाना इत्यादि सारे काम में निपुण हो गई। वहाँ मैं सीनियर हो गई और मेरे साथ कई जूनियर काम करने लगे। रुक्म जी के साथ काम करते समय बहुत कुछ सीखने को मिला। और मिला उनके साथ एक पारिवारिक रिश्ता। उनके घर भी कई बार आना-जाना हुआ। यह दौर मेरी जिंदगी का सबसे अच्छा समय रहा। पर कभी भी ज्यादा समय तक अच्छा दिन नहीं रहता, ठीक वैसे ही मेरे साथ हुआ। लगभग तीन सालों तक उनके साथ काम की। इसी बीच मेरे पापा का निधन और मेरी शादी भी हुई। इस दुखी और सुख की घड़ी में यह पूरी टीम मेरे साथ रही। पर धीरे-धीरे यहाँ भी कुछ राजनीति माहौल का रंग चढ़ने लगा, और मैं महानगर कार्यालय की दुनिया से अलग हो गई। पर बगल में ही प्रभात कार्यालय में अगले दिन से जुड़ गई। यह बहुत बड़ा परिवार। यहाँ ओम प्रकाश अश्क जी संपादक के रूप में थे। उनके आशीर्वाद और सहयोग से ही पहले दिन से ही मुझे हावड़ा का इंचार्ज बना दिया गया। हावड़ा में मैं जन्मीं, पली, पढ़ाई की, शादी हुई और उस समय मैं हावड़ा में ही रहती थी। और काम भी मिला हावड़ा का। अखबार की दुनिया में जिला रिपोर्टर को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता। इसके बावजूद मैं खूब मन से काम करती। मुझे जिले से कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं केवल इतना जानती थी कि मुझे इमानदारी और मन से काम करना है। मैंने अपना काम वैसे ही किया। रिपोर्टरों से न्यूज लेना और उसे एडिट करके पेज पर सजाना। हावड़ा में मेरी पहचान भी बढ़ती गई। डेस्क पर बैठे-बैठे खबरें मिल जाती। इसमें कई दोस्तों का भी सहयोग रहा। धीरे-धीरे मैं इस सब में निपुण हो गई। मन में विश्वास था, और काम करने के लिए एक अच्छी टीम थी, इसलिए कोई प्राब्लम नहीं हुई। मैं पेज बनाने के  साथ-साथ फीचर लिखती। गोपाल जी से बहुत कुछ सीखने को मिला। रिपोर्टिंग भी करने का मौका मिला। मतलब अखबार की दुनिया में मेरी पहचान बन गई थी। रेखा श्रीवास्तव एक ऐसा नाम बन चुका था, जिसे अखबार में लोग पहचानने लगे थे। जहाँ महानगर में मेरा शुरुआती दौड़ सुनहरा था, वहीं प्रभात खबर का यह दौर मेरे कैरियर का सबसे उछाल भरा समय था। हावड़ा सहित कोलकाता में मेरी पहचान हो गई थी। कार्यालय में भी मजा आता।  यहाँ एक तरफ अजय श्रीवास्तव, अखिलेश सिंह, अजय विद्यार्थी जैसे सीनियर का साथ मिला, तो वहीं विशाल, प्रशांत, रीना, सुषमा जैसे हमउम्र का साथ मिला, जिसके साथ एक टीम के रूप में काम किया। यह वह दौर था, जब पारिवारिक जिम्मेदारियाँ भी कम थी, और अपना पूरा समय, ध्यान कैरियर पर लगा पा रही थी। संपादक जी कभी भी अचानक किसी रिपोर्टिंग पर भेज देते, फीचर खिलने को देते और मैं पूरे मन से उस काम को पूरा करती। पर मेरे जीवन में खुशी ज्यादा देर नहीं टिकती। इसीलिए यह दौर भी धीरे-धीरे खत्म होता गया। सर अश्क जी का ट्रांसफर हो गया और यहाँ एक सज्जन आये राजेश सिसोदिया। बिल्कुल कम उम्र, काम करने की क्षमता से ज्यादा दिखावा। तनाव का माहौल व्याप्त करना। अश्क जी के सामने जैसा माहौल था, अब उसके विपरीत माहौल हो गया। फिर भी काम चल रहा था, पर शुरुआती दौर में जो आनंद आ रहा था, वो खत्म हो रहा था। मेरी एक प्राब्लम है, जिस काम को करने में आनंद और खुशी महसूस नहीं होती, उसे करने के लिए दिल साथ नहीं देता। और जहाँ दिल नहीं, वहाँ काम करने में अरुचि होती है। प्रभात खबर कार्यालय में भी कुछ वैसा होने लगा। और दूसरी तरफ परिवार को भी बढ़ाने की इच्छा थी, और जिस दिन मुझे पता चला कि मैं प्रेग्नेट हूँ, मैंने उसी दिन अर्थात् दिसंबर 2007 में प्रभात खबर कार्यालय को टाटा-बायँ-बायँ कर दिया। अब मैं पूरी तरह से पारिवारिक होकर जीना चाहती थी और हो गई। परिवार में माँ की बीमारी, मौत और दो-दो बेटियों क जन्म, उसके लालन-पालन में लगभग सात सालों तक लगी रही। इस बीच अखबार की दुनिया से पूरी तरह अलग हो गई। पर कभी-कभी अखबार की दुनिया को बहुत मिस करती, रेखा श्रीवास्तव को कई बार मैं खोचती। पर वह कहीं नहीं मिलती। फिर एक दौर शुरू हुआ घर में बैठकर फीचर लिखने का। कोलकाता से निकलने वाला प्रभात वार्ता  में फीचर लिखने का काम शुरू हुआ और फिर से अंदर बैठी चिंगारी आग का रूप ले रही थी। इसी बीच सेक्टर फाइव से एक अखबार निकलने की खबर मिली। अखबार के कार्यालय पहुँची। अखबार था भारत दर्पण। वहाँ ज्वाइन कर ली। अब काम का दूसरा दौर शुरू हुआ। जहाँ पहले उछल –उछल कर काम करती थी, वहीं अब शांत भाव से बैठ कर काम कर रही थी। आँखों में चश्मा चढ़ चुका था। सीनियर की श्रेणी में तब्दील हो गई थी। पता ही नहीं चला कि अचानक चुलबुली रूप में काम करने वाली रेखा अचानक इतनी सीनियर कैसे हो गई। लेकिन वहाँ कम उम्र के लड़के-लड़कियों को काम करते देख कर अपने आप सीनियर होने का अनुभव हो जाता। यहाँ काम मिला प्रूफ देखने का और पेज बनाने का। इसमें भी मजा आ गया। आफिस का माहौल भी बहुत अच्छा था, पर संपादक की खोज बीन जारी थी। एक दिन मैं वहाँ पहुँची तो देखी कि संपादक आ चुके हैं। और वो संपादक और कोई नहीं, मेरे गुरु ओम प्रकाश अश्क जी ही थे। उनको देखकर मेरी खुशी दुगुनी हो गई। जिनके साथ काम सीखने का मौका मिला था, उन्हीं के साथ काम करने का मौका फिर से मिला इससे बड़ी बात क्या होगी। और फिर काम चलता रहा, पर वहाँ का मालिक अजीबो-गरीब निकला। एक दिन अचानक एक मीटिंग में घोषणा कर दिया कि आप का यह अखबार आज से बंद कर दिया जा रहा है। अजीब स्थिति हुई दिमाग की। सोचा यह क्या हुआ। अखबार भी कोई मोदी दुकान है कि जब मन किया तो चालू किया और जब मन किया तो बंद कर दिया। पर कुछ किया नहीं जा सकता था। फिर से घर में रहने लगी। बच्चों की दुनिया में सिमट गई। कुछ महीनों बाद फिर खबर मिली कि भारत दर्पण फिर से निकलने वाला है और इस बार बंद नहीं होगा क्योंकि इस बार एक बांग्ला अखबार को भी साथ में खोलेंगे। वहाँ से कई बार फोन आये, लेकिन मन नहीं कर रहा था। कई महीनों बाद फिर वहाँ गई और ज्वाइन की। लेकिन किस्मत की मार फिर मिली। अखबार के मालिक ने फिर से अखबार को बंद कर दिया। एक महीने भी काम नहीं कर पाई कि अखबार फिर से बंद। अब सोच ली कि अब भारत दर्पण में कभी नहीं आऊँगी। लेकिन कुछ महीनों बाद ही अचानक अदिति दी ने फेसबुक पर एक मैसेज भेजा कि अगर काम करना है, तो अश्क जी से संपर्क करो। मैंने तय कर लिया था कि अब काम नहीं करना। लेकिन तब तक उनका फोन आया कि सेक्टर फाइव से ही एक बड़ा अखबार आ रहा है, इसमें संपादक के तौर पर अश्क जी हैं, और उन्हें लोगों की जरूरत है। रेखा प्लीज उनसे संपर्क करो। मैंने तुरंत उनको फोन मिलाया। उन्होंने कार्यालय बुलाया। मैं बच्चों को दोपहर में सुला कर वहाँ पहुँच गई। बात-चीत हुई और कुछ दिन बाद आने की बात तय हुई। फिर कुछ दिन बाद सलाम दुनिया के कार्यालय में पहुँची। पता चला कि अब वहाँ अश्क जी नहीं रहे। एक दूसरे संपादक आने वाले हैं। फिर मैं ज्वाइन की। और काम का दौर शुरू हो गया। घर, बच्चे और नौकरी के बीच तालमेल बैठाते हुए यह सफर शुरू हुआ। बहुत सालों बाद फिर से एक बड़े हाउस से जुड़ी। कभी-कभी तकलीफ हुई। कभी-कभी लगा कि अचानक मैं बहुत पीछे हो गई है, और दुनिया काफी आगे बढ़ गई। पर फिर भी काम अच्छा चल रहा था। आत्मविश्वास बढ़ गया था। मन में फिर से काम करने की खुशी हो रही थी। इतने बड़े हाउस से जुड़ने और काम का सिलसिला शुरू होने से अपनी पहचान लौटती नजर आ रही थी। यहाँ के संपादक संतोष सिंह का  भरपूर सहयोग मिला, पर उनका भी कहना था कि घर की जिम्मेदारियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसलिए प्राथमिकता बच्चों की होनी चाहिए। फिर भी मैं घर, परिवार और नौकरी एक साथ करना चाहती थी। पर किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। घर, परिवार बच्चे और नौकरी एक साथ इसलिए कर पा रही थी, क्योंकि आफिस सेक्टर फाइव में था और घर से नजदीक था। वापसी के समय वाहन की भी सुविधा थी। इसलिए मेरी गाड़ी निकली थी। पर कुछ ही महीनों में खबर आई कि सलाम दुनिया का कार्यालय स्थानांतरण हो रहा है। डलहौजी जा रहा है। मेरे पांव से जमीन चली गयी और सर से छत ऐसा लगा। एक-दो दिन तो खुद को संभाल नहीं पाई और फिर धीरे-धीरे खुद को संभाल ली। डलहौसी कार्यालय में लगभग दस दिनों तक गई, लेकिन लौटते समय रात ग्यारह बज जा रहा था। बच्चे परेशान हो रहे थे। अत: फिर से मीडिया की नौकरी को टाटा-बायँ-बायँ करते हुए सलाम दुनिया की टीम से अलग हो गई। और इस तरह से मेरा और मीडिया का साथ हमेशा-हमेशा के लिए छूट गया। कभी-कभी मन में टीस उठती, लेकिन फिर से दब जाती। 

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