माँ को गये, दस
साल हो गये। बहुत लंबा समय हो गया। कभी सोची भी नहीं थी कि माँ के बिना
जी भी पाऊँगी। पर जी रही हूँ। पर मैं यह कह सकती हूँ कि इन दस वर्षों में ऐसा कोई दिन
नहीं बीता होगा, जब माँ शब्द मेरे मुँह से नहीं निकला होगा। माँ खुशी में भी , दुख
में भी सबसे पहले पास होती है। वो महसूस होती है। मुझे याद है बड़े भैया हमेशा कहा करते
थे कि माँ का आंचल पकड़ कर रखोगी तो कभी आगे नहीं बढ़ पाओगी। सही कहा करते थे, मैं आगे
नहीं बढ़ पाई। पर माँ का आँचल कभी नहीं छोड़ पाई। पर बाद के दिनों में मैं देखा करती
थी कि माँ का आँचल सबसे ज्यादा बड़े भैया ही पकड़े थे। जब माँ बहुत बीमार थी। तब कईयों बार देखी
कि सुबह में माँ के पाँव के पास बड़े भैया सो रहे थे। रात में वो अपने कमरे में सोते
थे, पर आधी रात में सबके सो जाने के बाद वह माँ के पास आ जाते थे, और चुपचाप वह माँ
के पाँव सो जाया करते थे। माँ के साथ मेरा एक अलग प्रेम था। उनको देख लेने से, उनके
पास होने से, उनके स्पर्श से इतनी अच्छी नींद आती थी, जो शायद मैं इन दस सालों में
नहीं पाई। मुझे याद है कि केवल वो मेरे पास रहती थी, तो लगता था कि मैं पूरी हूँ। और
अगर वो साथ नहीं होती थी, तो फोन पर बातें करते थे। पर हमारा प्यार कभी कम नहीं होता
था। मैं सोचती हूँ कि मैं सबसे ज्यादा माँ को प्यार करती थी, पर माँ तो अपने सभी बच्चे
को प्यार करती रही होंगी। पर पता नहीं मुझे क्यों लगता था कि मैं छोटी हूँ, तो मुझे
बहुत प्यार करती हैं। और हमेशा मुझे ऐसा ही महसूस होता था। लेकिन ऐसा नहीं है। माँ
सबसे बहुत ज्यादा प्यार करती थी। वो तो वास्तव में सबके लिए माँ थी। इतना प्यार था
उनके अंदर, कि मुझे कभी उनका गुस्सा या दुख मुझे याद भी नहीं। उन्होंने जीवन में बहुत
दुख देखे, तकलीफ पाईं पर कभी भी उनको टुटने नहीं देखा। बिखरते नहीं देखा। छुटपन में
जरूर पापा के साथ झगड़ते देखती थी, हम लोगों के कपड़े, जूतों के लिए पापा के साथ नाराज
हो जाती थी। पर आज मैं याद करती हूँ कि वो कितनी धैर्यवान थी कि जहाँ मैं घबरा जाती
थी, वहीं कितनी शांत रहती थी। कहाँ से उनके अंदर इतनी धीरजता, सहजता आयी थी नहीं मालूम।
पर बाद के दिनों में वहीं उनकी हिम्मत बनी। मुझे याद है जब वह बिल्कुल अंतिम स्टेज
पर थी, हमलोग उंगली पर उनके बचे दिनों को गिन रहे थे। उस समय भी वह मुझे कहती (इशारे
से) थी कि मुझे ठीक होने दो, मैं तुम्हारी बेटी को देख लूँगी। तुम नौकरी करना। और बच्ची
की चिंता बिल्कुल मत करना। मैं हंस कह कहती माँ जल्दी ठीक हो, और संभालो। मुझसे नहीं
होता यह सब। यह दस साल क्या अगर मेरे पास बेटियाँ नहीं होती, तो मुझे लगता मैं माँ
के बिना एक दिन भी नहीं रह सकती थी। यह संजोग था या इसे ही भगवान का सोचा-समझा। जब
गुड़िया मात्र छह महीने की थी, और मेरा ध्यान पूरी तरह से उस पर था। उस समय माँ मुझको
छोड़ गईं। मैं बेटी में बिजी हो गई, इसलिए माँ को केवल याद करते हुए जिंदगी को जी ली।
पर अब तो माँ एक नये रूप में आने लगी है। कभी बेटी की बातों में, तो कभी बेटी के चेहरे
पर। पिछले कुछ दिनों पहले सरस्वती पूजा में बेटू साड़ी पहनी थी। और मैंने उसकी एक-दो
फोटो उतारी। और सही कहती हूँ जब उन फोटो को देखी तो लगा कि अरे यह तो माँ की फोटो है।
बिल्कुल वैसे ही खड़ी होना। वैसे ही दुबली। वैसे ही साड़ी पहनी थी। मसलन उसमें माँ की
झलक दिख रही है। ठीक वैसे ही छोटू की बातों में भी कभी-कभी माँ सामने आ जाती हैं। वैसे
तो माँ को गये, दस साल हो गये। पर आज भी माँ मेरे अंदर वैसे ही है, जैसे पहले थी। और
शायद जब तक जीऊँगी, तब तक वो मेरे साथ वैसे ही ही रहेंगी।
प्रेसिडेंसी में आठ साल का सुहाना सफर
कल 4 जनवरी 2024 है। यानी कल मुझे प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय से जुड़े 8 साल हो जायेंगे। आठ साल पहले मैं यहां के हिंदी विभाग से जुड़ी थी। वहां का परिवरा बहुत अच्छा था। माँ बनने के बाद मेरे जीवन की यह दूसरी पारी की शुरूआत थी। पहले पारी में मैं हिन्दी अखबारों की दुनिया से जुड़ी थी। महानगर से होते हुए प्रभात खबर की यात्रा की थी। अखबार की दुनिया में ग्लैमर, नाम, पहचान बहुत कुछ था। चूंकि मैंने रिपोर्टिंग भी की थी, फीचर भी जमकर लिखा था। फिल्मी दुनिया पर भी लिखा। इसलिए मुझे वह सफर बहुत अच्छा लगा था। लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों की वजह से उस दुनिया को अलविदा कहना पड़ा। लगभग सात साल बाद 2014 में दूसरी पारी की शुरूआत फिर से अखबार की दुनिया से की थी, लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों के लिए अखबार में नौकरी करना नामुमकिन लगा। इसलिए समझ में आ गया कि पारिवारिक जिम्मेदारियों के लिए अखबार की दुनिया को छोड़कर कहीं न कहीं सुबह दस से शाम पांच –छह बजे तक की ही नौकरी करनी पड़ेगी। इसी क्रम में 2016 में प्रेसिडेंसी से जुड़ गई। यह मेरे लिए सौभाग्य की बात थी। जहां लोग पढ़ने का सपना देखते हैं, वहां मुझे जुड़ने का मौक...
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