पेजमेकर के रूप में मेरे अनुभव
मेरे पत्रकारिता कैरियर की शुरुआत खबरों
के टाइपिंग और पेज बनाने से ही शुरू हुई। काम शुरू करने के पहले पेज बनाने के बारे
में मुझे कोई जानकारी नहीं थी। हाँ, चूंकि प्रकाशन का काम की थी इसलिए पेज सेटिंग जानती
थी। लेकिन जब मैंने अखबार (न्यूमेंस महानगर) में पेज बनाने का कार्य संभाला, तो वो
काम प्रकाशन के काम से बिल्कुल भिन्न था। संपादक डॉ. रुक्म जी के साथ काम कर खबरों
और फीचरों का महत्व, उनका पेज के हिसाब से बंटवारा, लोकल पेज का महत्व और प्रथम पेज
की खबरों का चयन जैसे बहुत कुछ उनसे सहज भाव से सीखने को मिला। सबसे बड़ी बात है कि
बहुत ही अच्छे और शांत माहौल में उनके साथ काम करने को मिला। उस समय पेज पेजमेकर में
बनाया जाता था। मैंने पेज बनाने की कला सांध्य दैनिक अखबार न्यूमेंस महानगर से ही सीखना
शुरू किया। उसके बाद 2003 में जब मैं प्रभात
खबर अखबार में डेस्क से जुड़ीं तो संपादक ओम प्रकाश अश्क सर से बहुत कुछ सीखने को मिला।
अखबार जगत में पेज सज्जा भी एक कला है। वो हमेशा पेज को आकर्षक और नये रूप में सजाने
के गुर बताते रहे और मैं सीखती रही। सबसे ज्यादा
काम मैंने प्रभात खबर में ही सीखा और किया। कई सीनियर भी थे, जिनसे अच्छी तरह से काम
करने की प्रेरणा मिलती रही। डेस्क पर काम करना काफी चुनौती भरा काम है। कभी-कभी इतने
समाचार आ जाते हैं कि आप समझ नहीं सकते कि किसको मुख्य रूप से दें या किसको कांट-छांट
कर कितना छोटा किया जा सके। कभी –कभी तो खबरों की संख्या भी काफी घट जाती है तो हमें
उसी में काम चलाना पड़ता था। कई बार अच्छी स्टोरी
हमलोगों को बचा कर दूसरे दिन के लिए रखना पड़ता था। ऐसे में कई बार अच्छी स्टोरी बेजान
और पुरानी हो जाती थी। हमारा काम दोपहर दो
बजे से शुरू होता। जैसे जैसे शाम होती, काम बढ़ता जाता। छह बजे से आठ बजे तक हमारे लिए
पिक आवर रहता था। उस समय खबरों को रिपोर्ट्स से लेना, खबरों को पढ़ना, उसके मुताबिक
हेडिंग, सब हेडिंग बनाने का काम रहता। बड़ी खबरों को प्रमुखता से देना, स्टोरी को बॉटम
बनाना। छोटी-छोटी खबरों को सिंगल, डीसी लेना। फोटो लगाना। कैप्शन देना इत्यादि…इत्यादि।
आठ बजे के बाद से पेज छोड़ने का क्रम शुरु होता। नौ बजे से पेस्टिंग और प्रिंट में भेजने
की तैयारी शुरू होती। प्रभात खबर में हावड़ा पेज की जिम्मेदारी मुझ पर थी। डेस्क पर
काम करने वाले को अपने रिपोर्ट्स के साथ भी अच्छा तालमेल बैठाना पड़ता है। काम के शुरुआत
में छोटे-मोटे खबर कई बार रिपोर्टर्स फोन पर ही देते हैं तो वहीं उनके कार्यालय से
जाने के बाद घटने वाली घटना के बारे में भी बात में फोन पर सूचना मिलती थी। इसलिए रिपोर्ट्स
के साथ अच्छा तालमेल की जरूरत पड़ती है। सलाम दुनिया में भी यही स्थिति थी, हाँ तकनीकी
कुछ परिवर्तन जरूर हुआ था।
जहाँ एक तरफ पेज मेकिंग का काम काफी
चुनौती भरा है वहीं दूसरी तरफ एक महिला के होने के नाते भी कई परेशानियाँ आती थी। मसलन जैसे लोकल पेज या
नंबर वन पेज बनाने की जिम्मेदारी मुझे नहीं दी जा सकती थी। क्योंकि मैं एक महिला थी
और मुझे समय पर घर भी जाना होता था। इसलिए मैं बिजनेस पेज, हावड़ा-हुगली पेज या अन्य
पेज ही बनाती थी और उन पेजों को भी कई बार अंतिम रूप से प्रिंट के लिए नहीं दे पाती
थी। क्योंकि उसमें अंतिम समय में बड़ी खबरें आने पर फेरबदल होता था। उस समय डेस्क पर
मेरे अलावा कोई महिला नहीं थी और हाँ, मुझे
आज भी लगता है कि पेज मेकिंग या सब एडिटर के रूप में हिंदी अखबारों में महिला की संख्या
ना के बराबर ही है। इस ओर महिला का ध्यान ही
नहीं जाता। जहाँ एक तरफ महिलाओं के लिए हर
क्षेत्र में रास्ते खुले हैं, और महिलाओं की संख्या भी बढ़ी है वहीं आज भी अखबार के कार्यालय में डेस्क पर पेज बनाने के
लिए महिलाओं की संख्या नहीं के बराबर हैं। इसकी एक और वजह है। डेस्क पर काम करना पत्रकारिता क्षेत्र से बिल्कुल
अलग सा कटा हुआ है। पत्रकारिता क्षेत्र का हिस्सा होते हुए भी पेज बनाने वाले या सब-एडिटर
पत्रकार नहीं होते। वो किसी सामान्य कार्यालय में काम करने वाले की तरह ही होते हैं।
कार्यालय पहुंचने के बाद खबरों को लेकर अपने-अपने कंप्यूटर पर अपना काम शुरू
कर देते हैं। फीचर तैयार करना। हेडिंग बनाना। सब हेडिंग बनाना। और देर रात तक यही क्रम
चलता रहता और फिर दूसरे दिन यही क्रम। यानी वो केवल कंप्यूटर पर ही चिपके रहते हैं। उनकी दुनिया इतनी सी ही होती है। चूंकि रात
बहुत ज्यादा होती है कि इसलिए डेस्क पर महिलाओं को काम करके घर लौटना भी एक बड़ी समस्या
होती है। वहीं दूसरी तरफ महिलाओं को रिपोर्टिंग के प्रति एक रुझान रहता है। वहां कैरियर
की भी संभावना दिखती है। ग्लैमर भी दिखता है। लेकिन डेस्क पर पेज मेकर के रूप में,
सब-एडिटर के रूप में उन्हें कोई संभावना नहीं दिखती खासकर हिंदी अखबारों में। संपादक
व टीम को भी महिला को रिपोर्टिंग व अन्य क्षेत्रों में डेस्क की तुलना में ज्यादा सुरक्षित
पाते हैं इसलिए उनका भी रुझान उसी तरफ होता
है। डेस्क पर लेने से पहले उन्हें भी कई बार सोचना पड़ता है। इसलिए पेज बनाने व सब-एडिटर
के रूप में महिलाओं की संख्या ना के बराबर है
लेकिन इस ओर युवा लड़कियों और महिलाओं को आगे बढ़ना चाहिए और अपनी पहचान बनानी चाहिए।
मैंने अपना अखबारी कैरियर महानगर में
2000 से शुरू किया। उसके बाद प्रभात खबर से जुड़ी और पूरे सात साल तक इस क्षेत्र में
रहीं। उसके बाद 2014 में भारत दर्पण और फिर
सलाम दुनिया की हिस्सा बनीं वो भी डेस्क पर ही। संयोग की बात है कि दुबारा भी जब मैं
डेस्क संभालने गयी तो मैं अकेली ही महिला थी जो डेस्क पर काम कर रही थी। चूंकि मैं
डेस्क के साथ रिपोर्टिंग, फीचर लेखन व टॉलीवुड पर काफी काम की थी। इसलिए मैंने पत्रकारिता
क्षेत्र को थोड़ा-सा जान लिया और थोड़ी-मोड़ी पहचान भी बन गयी। मैं केवल डेस्क पर ही सिमटी
नहीं रह गयी। लेकिन अगर मैं केवल डेस्क पर ही रहती तो शायद आज मेरी पत्रकार के रूप में पहचान नहीं हो पाती।
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