जिंदगी की रानी बनी रानी मुखर्जी ‘हिचकी’ में



हिचकी। जी हाँ, हिचकी। घबराइये नहीं। वो हिचकी नहीं, जिससे पता चले कि आपको कोई याद कर रहा है या फिर वो भी हिचकी नहीं जिससे कि लोग आपके सामने पानी बढ़ा दे। यह हिचकी रानी मुखर्जी की ‘हिचकी’ है। यानी बालीवुड की एक नयी फिल्म। एक नयी सोच पर बनी फिल्म। इस फिल्म में ‘हिचकी’ को एक बीमारी के रूप में दिखाया गया है, जिसकी वजह से रानी मुखर्जी (नैना) एक सामान्य जिंदगी नहीं जी पाती है और उसे हर जगह अलग तरह से देखा जाता है। पर उसने बड़ी सच्चाई से अपनी इस कमजोरी को ही ताकत बना लिया और एक सफलतम जिंदगी जी कर दिखा दिया। इस फिल्म के माध्यम से हम यह जरूर समझ सकते हैं कि जिस तरह रानी मुखर्जी (नैना) को हिचकी की परेशानी थी, उसी तरह से हम सब के अंदर कोई न कोई कमी और परेशानी जरूर है, और जब हम अपनी कमी और परेशानी को स्वीकार कर उसके साथ आगे बढ़ने का हौसला रखते हैं, तो दुनिया की कोई ताकत रोक नहीं सकती। बालीवुड में अपनी अमिट छाप रखने वाली अभिनेत्री रानी मुखर्जी चार साल के अंतराल के बाद इस फिल्म से बालीवुड में फिर से आई हैं। उनके दर्शक इस रोल में भी काफी पसंद किया है। इस फिल्म में रानी मुखर्जी एक सामान्य परिवार की एक सामान्य लड़की के रूप में नजर आयी है, जो एक बीमारी से ग्रस्त तो जरूर है। पर अपनी जिंदगी में वह इस बीमारी से टूटी नहीं है और उसने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया है और इसी के साथ आगे बढ़ती है और लंबे संघर्ष के बाद सफलता भी हासिल करती है। निर्देशक सिद्धार्थ पी.मल्होत्रा ने बड़े ही अच्छे तरीके से फिल्म को दर्शक के सामने प्रस्तुत किया है। फिल्म की कहानी कुछ इस तरह है : एक सामान्य परिवार में नैना अपने पापा-मम्मी और भाई के साथ रहती है। वह टॉरेट सिंड्रोम नामक बीमारी से पीड़ित है। इसकी वजह से उसको हर समय हिचकी आती रहती है। अलग-अलग तरह की आवाज भी निकलती है। तनाव बढ़ने से उसकी बीमारी भी बढ़ जाती है। माँ और भाई इस बीमारी से लड़ने में उसका हौसला बढ़ाते हैं, और पिता इससे परेशान है। वह कई बार अपने परिवार को छोड़ कर चला जाते हैं और फिर वापस लौट आते हैं। उसके पिता बीमारी को बीमारी के रूप में देखते हैं और अपनी बेटी को समझौता करने के लिए बाध्य करते रहते हैं। इस मुद्दे पर पिता-बेटी में हर समय तनाव का माहौल व्याप्त रहता है। सामान्य परिवार में जहां पिता बेटी की शादी के लिए जिस तरह से परेशान रहते हैं, उसी तरह यहां इस बीमारी से त्रस्त पिता को दिखाया गया है। इस बीमारी के बावजूद नैना को एक अच्छे स्कूल में पढ़ने का मौका मिलता है और वह अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करती है। उसके बाद वह नौकरी के लिए दर-दर भटकती है। वह मुख्य रूप से शिक्षक बनना चाहती है, लेकिन उसकी बीमारी की वजह से उसे स्कूल वाले नौकरी नहीं देते हैं। संघर्ष काफी लंबा चलता है, और आखिरकार में उसे उसी स्कूल में नौकरी मिल जाती है जहाँ से उसने स्कूली शिक्षा प्राप्त की थी। वहां भी 14 ऐसे बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी मिलती है, जो समाज के पिछड़े वर्ग से आते हैं और वे किसी तरह से स्कूल तो आ जाते हैं पर उनका उद्देश्य पढ़ना नहीं है। उन बच्चों के अंदर पढ़ाई का जज्बा जगाने में नैना को काफी संघर्ष पड़ता है। अंत में कामयाबी हासिल करती है और आखिर में प्रिंसिपल होकर रिटार्यट होती हैं। इस फिल्म में जहाँ रानी मुखर्जी का अभिनय जबरदस्त था, वहीं माँ और पिता की भूमिका में जानी-पहचानी जोड़ी सुप्रिया और सचिन को देखने को मिली। ये दोनों ही दर्शकों की पसंद रहे हैं। भाई के रूप में हुसैन दलाल नजर आते हैं। छात्र-छात्राओं का अभिनय भी काबिले तारिफ रहा है। कहानी अंकुर चौधरी की है।  यश राज बैनर तले यह फिल्म दो घंटे तक दर्शक को अपने में बांधे रहती है। बीच-बीच में कई बार बहुत तनाव नजर आता है, पर रानी मुखर्जी (नैना) की हिम्मत और संघर्ष दर्शकों के अंदर भी जज्बा भर देती है और हमें सिखा जाती है कि हममें अगर कुछ कमी है, तो उससे हम दूसरे से कम नहीं। हमें भी सपने देखने का अधिकार है और उसे पाने का हौसला रखना चाहिए।  यह फिल्म हॉलीवुड फिल्म ‘फ्रंट ऑफ द क्लास ’ की कहानी से प्रेरित कहानी जरूर है, लेकिन इसमें बहुत कुछ नया दिखाया गया है। 

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