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दिल की बात

जो चाहा, पाई नहीं, जो पाई वह चाही नहीं। जिसका सपना देखी, वह हकीकत बन नहीं पाया। जो हकीकत में है, उसको अपना नहीं पाई। अकेले रहना अच्छा नहीं लगता। लोगों का साथ मिलता नहीं। कोई मुझे समय देता नहीं, मेरा समय किसी को चाहिए नहीं। मैं किसी की दीवानीं नहीं, कोई मेरा चाहनेवाला नही। मैं इतनी गरीब नहीं, कि मैं गरीब का लेबल लगाकर घूमूँ। और अमीर भी इतनी नहीं कि शान, शौकत से रह सकूँ। छोटा सा प्यारा परिवार है, लेकिन बुजुर्ग की कमी है। लोगों से दूर हूँ, पर किसी से अंजान नहीं। मसलन,मसलन न जाने कितनी बातें हैं और कुछ भी बातें नहीं। बातें बहुत है पर सुनने वाला कोई नहीं। दिल की तो एकदम नहीं। काम मैं ज्यादा कर नहीं पाती,इसलिए काम से मैं दूर ही रहती हूँ। दिल की बात दिल में है। दिल के बाहर की बात भी कोई नहीं करने वाला। मेरे अकेलेपन को मैं दिन दुनी रात चौगुनी बढ़ाती रहती हूँ।

छुट्टी और मैं

सोची थी कि इस बार की दुर्गापूजा को मैं खास बनाऊेंगी। खूब घूमूंगी। कोलकाता के चप्पे चप्पे पर होने वाले पूजा पंडाल को देखूंगी। थोड़ा ज्यादा ही सोच रही थी, लेकिन इच्छा थी कि इस वर्ष दुर्गापूजा में खूब घुमुंगी। कोलकाता के जिस इलाके में कभी रहा करती थी,जैसे हावड़ा, बालीगंज, टालीगंज, बांगुड़ समेत न जाने कितने इलाके में घूमना था, और हाँ हमारा अपना न्यू टाउन वहाँ भी घूमना था। सोची थी कि दस दिनों की इस छुट्टी में एक दिन भी घर में नहीं रहूँगी। पहले पूजा पंडाल घूमूंगी, माँ दुर्गा के दर्शन करूँगी। लाइटिंग देखूंगी। और उसके बाद कोलकाता के कई मंदिरों में भी जाऊँगी। घूमूंगी, खूब खाऊँगी। अगर कोई मिला तो किसी केसाथ जाऊंगी, अगर कोई नहीं मिला तो अकेले ही निकल पडूंगी। लेकिन दुर्गापूजा के आते ही मैं बीमार पड़ गई और पूरे नौ दस दिन बीत गये, खांस-खाँस कर बिस्तर पर पड़ी रही।बुखार में तड़पती रही। शुरुआत में दवा न खा की जिद्द पर पड़ी रही, बाद में दवाइयों का हीसहारा लेना पड़ा। बस यूँ ही बीत गया मेरा छुट्टी और रफूचक्कर हो गया मेरा घूमने का प्रोग्राम। इसी का नाम जिंदगी है।

मैं और मेरी तन्हाई

मैं जितनी अजीब मेरी तन्हाई उससे भी अजीब। मैं जितनी उलझी, मेरी तन्हाई उससे भी ज्यादा उलझी। दोनों आपस में लड़ते रहते हैं।अक्सर मैं जीत जाती हूँ, तोकभी कभी तन्हाई भी जीत जाती है। मैं मतलब मैं। मैं मतलब अहंकार वाला मैं नहीं। मेरा वाला मैं। यानी रेखा श्रीवास्तव वाला मैं। इस मैं का कहना है कि कुछ करो,खूब घूमो, लाइफ को इंजाय करो। लेकिन वहीं मैं का एक ओर हिस्सा है वह कुछ भी करने नहीं देता।जबकि वह चारों ओर सबको सबकुछ करते देख कर बहुत खुश होता है, लेकिन हिम्मत है कि वह कुछ कर लें, या करने दें। इसी कशम्कश में मैं उलझी जाती हूँ। उलझी रहती हूँ। मैं क्या चाहतीहूँ, क्या करती हूँ, क्या नहीं करती हूँ। बहुतमुश्किल हो रहा है। और उस पर से मेरी तन्हाई। वह तो मुझे पसंद नहीं, इसलिए मुझे जीने भी नहीं देती। सोचिए कि मेरी क्या स्थिति है।

बातचीत

घर से ऑफिस और ऑफिस से घर आना-जाना भी एक यात्रा है। छोटी पर दैनिक यात्रा। घर के सारे काम जल्दी-जल्दी निपटाकर, तैयार होकर ऑफिस निकलना, जहाँ थकान भर देता है वहीं ऊर्जा भी देता है। इस दौरान कई चेहरे और कई बातें होती रहती है। कुछ तो दिल दिमाग में बस जाता है तो कई बातों पर ध्यान ही नहीं जाता। कभी कुछ अच्छा लगता है तो कुछ बातें तकलीफ पहुँचा देती है। सफर के दौरान बहुत कुछ जानने और सीखने को भी मिलता है। मैं इस दौरान की कुछ बातें आप सभी के साथ शेयर करना चाहती हूँ। बात पिछले दिनों की है। ऑफिस से घर लौटने के क्रम में मैं जब ऑटो स्टैंड के पास पहुँची तो एक लड़की दौड़ती हुई ऑटो की तरफ लपकी और झट से किनारे की सीट पर बैठ गई। वह जल्दी में लग रही थी। उसके बाद एक पुरुष (55-60 साल) बैठे और किनारे की तरफ मैं बैठ गई। सामने की तरफ एक लड़का के बैठते ही चालक ने वाहन को स्टार्ट कर दिया। वह लड़की, जिसकी उम्र 23-24 के आस-पास रही होगी। देखने से लग रहा था कि अभी-अभी पढ़ाई पूरी कर नौकरी की दुनिया में प्रवेश की है। वह मोबाइल से किसी से बात कर रही थी कि एक लड़का पिछले कई दिनों से उसका पीछा कर रहा है। इसके पहले वह जिस ऑ

प्रेसिडेंसी में आठ साल का सुहाना सफर

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कल 4 जनवरी 2024 है। यानी कल मुझे प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय से जुड़े 8 साल हो जायेंगे। आठ साल पहले मैं यहां के हिंदी विभाग से जुड़ी थी। वहां का परिवरा बहुत अच्छा था। माँ बनने के बाद मेरे जीवन की यह दूसरी पारी की शुरूआत थी। पहले पारी में मैं हिन्दी अखबारों की दुनिया से जुड़ी थी। महानगर से होते हुए प्रभात खबर की यात्रा की थी। अखबार की दुनिया में ग्लैमर, नाम, पहचान बहुत कुछ था। चूंकि मैंने रिपोर्टिंग भी की थी, फीचर भी जमकर लिखा था। फिल्मी दुनिया पर भी लिखा। इसलिए मुझे वह सफर बहुत अच्छा लगा था। लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों की वजह से उस दुनिया को अलविदा कहना पड़ा। लगभग सात साल बाद 2014 में दूसरी पारी की शुरूआत फिर से अखबार की दुनिया से की थी, लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों के लिए अखबार में नौकरी करना नामुमकिन लगा। इसलिए समझ में आ गया कि पारिवारिक जिम्मेदारियों के लिए अखबार की दुनिया को छोड़कर कहीं न कहीं सुबह दस से शाम पांच –छह बजे तक की ही नौकरी करनी पड़ेगी। इसी क्रम में 2016 में प्रेसिडेंसी से जुड़ गई। यह मेरे लिए सौभाग्य की बात थी। जहां लोग पढ़ने का सपना देखते हैं, वहां मुझे जुड़ने का मौक

आज 17 मई है

आज 17 मई है। मम्मी-पापा की सालगिरह है, पर सबसे दुख की बात है कि आज दुनिया में दोनों ही नहीं है। पापा 2002 के सितंबर महीने में और माँ 17 फरवरी 2009 में एक अलग दुनिया में चली गयीं। उम्मीद करती हूँ कि अभी दोनों जहाँ भी होंगे, साथ होंगे और खुश होंगे। आप दोनों को सालगिरह की बहुत-बहुत बधाई। पापा अपने सालगिरह को लेकर काफी उत्साह से भरे रहते थे। ऐसे मौके पर माँ, पापा की तुलना में कम खुशियाँ दिखा पाती थीं। वह अपनी खुशी और दुख दोनों ही अपने तक सीमित रखती थीं। पापा का खुश होना, फोटो खिंचवाना, कुछ खास भोजन की चाह रखना, हम सब के लिए मिठाई लाना आज भी याद है। पापा को कभी गुस्सा करते नहीं देखी। उत्तेजित होते भी नहीं देखी। उनका व्यक्तित्व हंसमुख और जिंदादिल था। लोग उन्हें मस्तमौला कहते थे। लेकिन धुन के पक्के थे। वह जो तय करते थे, वही करते थे। उनका कहना था कि सुनो सब की, करो मन की। वह बहुत मिलनसार थे। वहीं, माँ के जीवन का फैसला पापा करते थे, उसके बाद बड़े भैया करने लगे। लेकिन कुछ फैसले वह खुद करती थी। मसलन, कब उन्हें फिल्म देखने जाना है, तो कब उन्हें बाजार जाना है। खाने और घूमने की शौकीन थी, तो वहीं स्व
अहसास खुशी का… जीवन में खुशी और गम कब आ जायें, और कब चला जाये इसके बारे में कभी कोई नहीं बता सकता है। पर यह क्रम पूरे जीवन में चलता ही रहता है। वैसे मेरे जीवन में आजकल एक अलग तरह की खुशी का दौर चल रहा है। शायद यह दौर सभी के जीवन में आता होगा, पर मेरे जीवन में यह आने से अचानक इतनी खुशी हो रही है कि मन गद्गद् हो जाता है। यह खुशी है खुद के बड़े होने का, और ऐसा लग रहा है कि मेरे सामने मेरे छोटे अचानक बड़े होकर सामने खड़े हो गये हैं और मैं गद्गद् होकर खुश होकर उनको आशीष दे रही हूँ। पिछले एक-दो साल से ही ऐसा चल रहा है, पर फिलहाल काफी खुशी हो रही है। वैसे पहली बार इसका अनुभव तो 2008 में ही हुआ था। जब किंशुक का क्लास टेन का रिजल्ट फोन पर मैं पहली बार सुनी थी। खुशी के मारे आँखों से आँसू बहने लगे थे, पर जल्दी ही अपने आंसू को रोक कर सामान्य होने की कोशिश की। उसके बाद तो फिर बहुत लंबा समय हो गया। कई साल पहले जब मैं 14-15 साल की थी, तो पापा के साथ रिश्तेदारों के यहाँ (खासकर मामा) के यहाँ जाना होता था। वहाँ बहुत छोटे –छोटे बच्चे थे। किसी की मौसी, किसी की बुआ थी। फिर सब अपने-अपने में जीवन में जैसे व